Tuesday, 3 July 2012

उज्जैन


उज्जैन
-दिव्यंश खरे, VIII- ‘
मुझे अच्छा लगा जो इस शहर में शोर बाकी है|
बसाहट है मुहल्लों में सुबह से शाम तक बोले


कहीं पर काम से तो यह कहीं बेकाम ही डोले
कहीं सिगड़ी पे बनती चाय को पीते खड़े होकर लोग
मुझे अच्छा लगा जो इस शहर में भोर बाकी है|
कहीं पत्तों की आहट है
कहीं फूलों की क्यारी
कहीं पर रातरानी से चांदनी रात हारी है
शहर के पास गावों में
कटी आमों की टोली है
मुझे अच्छा लगा जो इस शहर में भोर बाकी है
कई मंदिर यहां पर हैं
मजीरे ,ढोल, ताशे हैं
कहीं मीठी प्रसादी है
अगरबत्ती बताशें हैं
यहां पर काल भैरव हैं
यहां गणपति शिवालय है
मुझे अच्छा लगा जो ईश्वर कृपा की कोर बाकी है
यही है भोज की नगरी
महाकवी कालिदास आश्रम
यहीं विधुत्तमा-वाणी पर
लहराया था कवि परिचम
यहां तारों का अध्ययन
हो रहा नित जमाने से
मुझे अच्छा लगा जो, उज्जैन में सुख ठौर बाकी है











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